Saturday 7 May 2011

देश क्या होता है


देश क्या होता है?
विश्व के मानचित्र पर एक टुकड़ा भू-भाग,
कभी-कभी सागर का तट 
कुछ पहाड़,
कुछ नदियाँ
वनस्पतियाँ, बन्दूक, हल, कारें,
और दोयम दर्जे के लोगों की कतारें ?

एक अदद रंग-बिरंगा झंडा
सावधान की मुद्रा में गाये जाने वाला एक गान,
क्या मात्र इतनी है किसी देश की पहचान? 

मैं इन सबको देश नहीं मानता,
भले ही तुम्हें ये सब स्वीकार हो...
मेरे लिए देश मात्र निष्ठा है,
और यह आवश्यक नहीं है
कि हर निष्ठा का कोई रंग हो- 
कोई आकार हो.


---तरुण प्रकाश

विरासत


एक पिता,
कुछ और नहीं देता है विरासत में अपने पुत्र को,
एक अधूरी यात्रा के सिवाय.


वह यात्रा-
जो उसने अपने पिता से पाई थी.


इस विश्वास के साथ-
कि यदि वह यात्रा उसका पुत्र पूरी न कर सका, 
तो यात्रा का अधूरा हिस्सा सौंप देगा उसके पौत्र को.


संततियों का,
कुछ और नहीं होता है व्याकरण,
यह है मात्र पिछली पीढ़ी द्वारा 
अगली पीढ़ी को, 
अपनी अवशेष यात्रा का हस्तांतरण.


--- तरुण प्रकाश

ककहरे की त्रासदी


उस मरते हुए अक्षम कवि ने,
टूटने से पूर्व अंतिम सांस की सारी ऊर्जा बटोरकर,
दिया था सृष्टि को - समय को- और समाज को 
अपना सन्देश-
बुना था संकेताक्षरों से श्वेत पत्र पर,
अपने दर्शन का सम्पूर्ण परिवेश....


'क' जो नीले आकाश में उन्मुक्त उड़ते
धवल कबूतर के लिए था,
-स्वतन्त्रता की अमूर्त धारणा क़ा मूर्त उदहारण,
'ख' खिलौनों क़ा संकेत करता था,
और देश के औजारों व परिश्रम से जूझते बचपन में,
ताज़गी और उमंग भरता था.
और 'ग' गेहूं की कथा सुनाता था,
और इस प्रकार उस जर्जर कवि के
मृत्यु-पूर्व अधूरे बयान में देश के प्रति जिए गए
उसके सपनों क़ा हर रंग झिलमिलाता था. 


व्यवस्था ने,
'क़' से 'क़त्ल'
'ख' से 'खून' और
'ग' से 'गुलामी' अर्थ खींचकर 
इन निश्छल -निरपराध-निर्दोष अक्षरों का
आतंक इतना बढा दिया...
कि उस मर चुके कवि को देशद्रोही सिद्ध कर,
उसके जिंदा परिवार को फांसी पर चढ़ा दिया.


---तरुण प्रकाश

ग़ज़ल


दिल पे है नक्श, आपका चेहरा.
नर्म हाथों में गुनगुना चेहरा.


तेज़ ज़ालिम हवा, चमन में  है,
उसका चेहरा है, फूल सा चेहरा.


सुन सको तो, जुबान रखता है,
यार होता है, आईना चेहरा.


होंठ कितना भी भींच ले कोई,
भेद खोलेगा, शर्तिया चेहरा.


सिर्फ आँखों को छोडिये वरना,
किसका होता है, बेवफा चेहरा.


ढूंढता हूँ मैं,  एक मुददत से, 
भीड़ में एक, खो गया चेहरा.


--- तरुण प्रकाश 

चिड़ियों का चहकना



आज ब्रह्म मुहूर्त में
फिर चिड़ियों का चहकना सुना,
बरसों बाद.

सुबह सूरज सर तक चढ़ आने पर
टाईमपीस की तीखी स्वर-लहरी
किचन में बर्तनों की बतकही
बहते समाचार-
बार-बार बाज़ार जाकर कर सामान लाने का पत्नी का निर्देश,
भोजन करते समय,
शाम को लौटते हुए कुछ और लाने का आदेश.

पूरे दिन कचहरी में
कानों के आर-पार होती
'हाज़िर हो ' की आवाजें,
बहस-मुबाहसे-जिरह के खुलते-बंद होते दरवाज़े.

रiत को देर तक
फाइलों से माथा पच्ची
किताबों की सरसराहट,
और फिर सो जाने तक, पूरे दिन के गुज़रे हर पल की
ज़ेहन में प्रतिध्वनि - स्पष्ट आहट.

आज ब्रह्म मुहूर्त में
फिर चिड़ियों का चहकना सुना,
बरसों बाद.

--- तरुण प्रकाश

ज़िन्दगी भर सोचूंगा

ओ पिता !
ओ माँ !!

शायद हम इतने दूरदर्शी नहीं थे
कि देख पाते - एक टुकड़े बाद का समय.

अब डर लगता है -
बार - बार लौट कर वापस आने में,
बस गिनता रहता हूँ -
पदचाप के स्वर
जो हमारे बीच की दूरियां नापते हैं.

तुम्हारी आँखों में अब भी तैरता है प्यार-
थोड़ी चिंता और भविष्य का थोडा अनमनापन,
लेकिन मुझे पता है -
उन आँखों के पीछे मचलती अदृश्य पीड़ा का.
युवावस्था में,
बुढ़ापे के देखे गए
सपनों कि हत्या का मैं हूँ चश्मदीद गवाह.

मुझे पता है-
परिस्थितियों ने खींच लिया है मुझे,
तुम्हारे दायरे से बाहर.

कभी मन में आता है-
तोड़ दूँ अपने पाँवो को-
क्योंकि जो पाँव तुम्हे गति नहीं दे सके,
उनका मैं क्या करूँ?
लेकिन नहीं-प्रतीक्षारत पीड़ी को तो गति देनी है.

कभी-कभी चाहता हूँ-
नोच कर फेंक दूँ अपने हाथ,
क्योंकि जो हाथ तुम्हे सहारा नहीं दे सके,
उनका मैं क्या करूँ?
लेकिन नहीं - इन्हीं कंधों पर है मेरा सारा भविष्य
इन्हीं हाथों से सहलाना है मुझे अपने बच्चों को,
जिस तरह कभी तुमने मुझे सहलाया था.

और कभी इच्छा होती है -
काट डालूं अपनी जुबान,
क्योंकि जो जुबान तुम्हारा दर्द नहीं पी सकती,
उसका मैं क्या करूँ?
लेकिन नहीं - इस जुबान पर भी जिम्मेदारियां हैं,
बहुत सी भावनाएं गूंगी हैं -
अभी मुझे शब्द
गढनॆ हैं उनके लिए.

ओ पिता!
ओ माँ !!
मुझे मालूम है - तुम मेरे पाँवो से बंधे भंवरों से परिचित हो,
मुझे ये भी मालूम है -
तुम मुझे क्षमा कर दोगे,
क्योंकि क्षमा मांगने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर सकता,
और क्षमा करने के अतिरिक्त तुम भी कुछ नहीं कर सकते.

यह सही है-
अब मैं तुम्हें पढ नहीं सकता,
तुम्हें लिख नहीं सकता
तुम्हे सुन नहीं सकता,
लेकिन मैं तुम्हें सोच सकता हूँ,
हाँ -
मैं तुम्हें जिंदगी भर सोचूंगा.


- तरुण प्रकाश